***।।न रहो न निराश करो मन को ।। *** रचनाकार :मैथिलीशरण गुप्त
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नर हो, न निराश करो मन को , मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा रचित इस कविता में जीवन से निराश मन को स्फूर्ति और साहस प्रदान करने वाली ये पंक्तियां आपके जीवन के अंधकार को मिटाकर आपके जीवन में ऊर्जा और प्रकाश का संचार करेंगी। इस कविता की हर एक पंक्ति हमें जीवन जीने के नज़रिए में सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करती है, जीवन की कठिन परिस्थितियों में, उस नाज़ुक दौर में किस तरह खुद की ताकत पहचान कर अपने जीवन में नई शुरुआत करना चाहिए ,ये सब हम इस कविता द्वारा सीख सकते हैं। जीवन की उलझनों को सुलझाती ये चंद पंक्तियाँ आपके जीवन में नई ऊर्जाओं का स्त्रोत बन आपके जीवन को निखारने में काफी मददगार साबित होंगी। उम्मीद है आप सभी इस कविता के माध्यम से जीवन जीने का नज़रिया जरूर बदलेंगे और हर परिस्थिति का डटकर सामना करेंगे।
न रहो न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को
सँभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोत्तैर गुंजित गान रहे
सब जाए अभी पर मान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को
प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्तस करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को
किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को
करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरंतर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
- रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : बुंदेलखंड रिसर्च पोर्टल
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